क्या नोटा के रहते भाजपा प्रत्याशी की निर्विरोध जीत सही है? क्या हैं नियम, एक्सपर्ट से समझिए

नई दिल्ली:लोकसभा चुनाव, 2024 में भाजपा ने पहली जीत दर्ज की है। गुजरात में सूरत में पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल निर्विरोध निर्वाचित हो गए हैं। दरअसल, नामांकन पत्र वापसी के अंतिम दिन सभी आठ प्रत्याशियों ने अपनी उम्मीदवारी पीछे खींच ली। इसके बाद

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नई दिल्ली:लोकसभा चुनाव, 2024 में भाजपा ने पहली जीत दर्ज की है। गुजरात में सूरत में पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल निर्विरोध निर्वाचित हो गए हैं। दरअसल, नामांकन पत्र वापसी के अंतिम दिन सभी आठ प्रत्याशियों ने अपनी उम्मीदवारी पीछे खींच ली। इसके बाद भाजपा कैंडिडेट मुकेश दलाल निर्विरोध निर्वाचित हो गए। सूरत में एक दिन पहले कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुंभाणी का पर्चा रद्द होने के बाद से दलाल की निर्विरोध जीत के कयास लग रहे थे। वहीं, बसपा कैंडिडेट प्यारे लाल भारती ने सबसे आखिरी में पर्चा वापस लिया। मुकेश दलाल को बीजेपी के प्रदेश प्रमुख सीआर पाटिल को करीबी और विश्वस्त माना जाता है। सूरत के इतिहास में निर्विरोध निर्वाचित होने वाले दलाल पहले सांसद बने हैं।
अब सवाल यह उठ रहा है कि अगर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम में मतदाताओं के लिए NOTA (नन ऑफ द अबव यानी इनमें से कोई नहीं) का विकल्प है तो किसी उम्मीदवार को निर्विरोध कैसे जिताया जा सकता है? अगर कोई कैंडिडेट निर्विरोध जीतता है तो उसकी कानूनी मान्यता कितनी है? इन सभी सवालों के जवाब एक्सपर्ट्स से जानेंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-नोटा इसलिए ताकि वोटर्स को किसी को भी वोट नहीं करने का मिले हक
सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2013 में एक फैसला दिया था, जिसके बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) में नोटा का इस्तेमाल शुरू किया गया। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया था कि वह बैलट पेपर्स या ईवीएम में नोटा का प्रावधान करे ताकि वोटर्स को किसी को भी वोट नहीं करने का हक मिल सके। इसके बाद आयोग ने ईवीएम में नोटा का बटन आखिरी विकल्प के रूप में रखा। नीचे दिए ग्राफिक से जानते हैं कि देश में आजादी के बाद से अब तक कितने प्रत्याशी निर्विरोध लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं-
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वोटर के लिए रूल 49-O बना बड़ा हथियार
दरअसल, रूल 49-O के नियम के अनुसार, किसी वोटर को यह हक है कि वह वोट नहीं करे। नोटा से पहले कोई वोटर अगर किसी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहता था तो उसे फॉर्म 490 भरना पड़ता था। हालांकि, पोलिंग स्टेशन पर ऐसे फॉर्म भरना उस वोटर के लिए खतरा भी हो सकता था। यह कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स, 1961 का उल्लंघन भी था। इससे वोटर की गोपनीयता भंग होती थी।

तकनीकी रूप से सही नहीं निर्विरोध जीत, पर लोकतंत्र में नोटा को नहीं मान सकते उम्मीदवार
पॉलिटिकल एक्सपर्ट राशिद किदवई कहते हैं कि तकनीकी रूप से देखा जाए तो किसी प्रत्याशी को निर्विरोध जीत ठहराना सही नहीं है, क्योंकि ईवीएम मशीन में नोटा का विकल्प होता है। हालांकि, लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा कर पाना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि किसी न किसी को जीत का सेहरा तो पहनाना ही होगा। वैसे भी नोटा सभी वोटर्स का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यह कुछ ही लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। अगर वोटिंग कराई जाए और 1 वोट भी प्रत्याशी के समर्थन में पड़ा तो भी उसे ही जीता हुआ माना जाएगा। वैसे भी लोकतंत्र में नोटा को उम्मीदवार नहीं माना जा सकता है। जो भी प्रत्याशी निर्विरोध जीतता है तो उसकी जीत कानूनी रूप से सही मानी जाएगी।

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विपक्ष को करनी चाहिए बड़ी तैयारी
किदवई कहते हैं कि सूरत जैसी स्थिति से बचने के लिए विपक्ष को काफी तैयारी करनी चाहिए थी, जो उन्होंने नहीं की। ऐसे में विपक्ष को डमी कैंडिडेट भी खड़ा करना चाहिए। अपने उम्मीदवार को कवर देना चाहिए। जैसे अजीत पवार ने अपनी पत्नी के पक्ष में किया था, क्योंकि नामांकन किसी भी वजह से रद्द हो सकता है। अब आरोप लगाने का कोई फायदा नहीं होने वाला है। हालांकि, चुनाव आयोग को यह देखना चाहिए कि जहां इतने सारे उम्मीदवार नामांकन वापस ले रहे हों, वहां अपने स्तर से जांच जरूर करानी चाहिए।

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कही थी ये बड़ी बात
जुलाई, 2020 में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा था कि नोटा का चिकल्प वहां लागू नहीं हो सकता, जहां चुनाव में बस एक ही उम्मीदवार हो। ऐसे प्रत्याशी की निर्विरोध जीत होगी। जहां चुनाव में कई उम्मीदवार होंगे, वहां नोटा का नियम लागू होगा। दरअसल, हाईकोर्ट में यह याचिका दायर की गई थी कि जहां एक प्रत्याशी हो वहां भी नोटा का विकल्प होना चाहिए। तब हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस बी कृष्णमोहन की पीठ ने कहा कि इस तरह का प्रावधान लागू नहीं किया जा सकता है। अगर कोई भी इस तरह का बदलाव चाहते हैं तो आप चुनाव आयोग, केंद्र और राज्य सरकार के पास जाएं।
आगे बढ़ने से पहले सांसद बनने की योग्यताऔर नामांकन रद्द की परिस्थितियों के बारे में भी जान लेते हैं-

कौन संसद सदस्य बनने के योग्य नहीं है, जानिए
हमारे संविधान के अनुच्छेद 84-A के अनुसार जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है, उसे चुनाव लड़ने का कोई अधिकार नहीं है। लोकसभा, विधानसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी उतरने के लिए न्यूनतम उम्र 25 वर्ष तय की गई है। 25 साल से कम उम्र होने पर कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है। वहीं,
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 4(d) के मुताबिक, जिस व्यक्ति का नाम संसदीय क्षेत्र की मतदाता सूची में नहीं है, वह चुनाव नहीं लड़ सकता है। साथ ही वह व्यक्ति जिसे किसी मामले में 2 साल या उससे अधिक की सजा हुई है, वह भी चुनाव नहीं लड़ सकता है।

किन परिस्थितियों में किसी प्रत्याशी का नामांकन रद्द होता है, जानें नियम
अगर प्रत्याशी ने सिक्योरिटी डिपॉजिट जमा नहीं किया है तो उसका नामांकन रद्द हो सकता है। नामांकन पत्र पर प्रत्याशी के अपने असली दस्तखत होने चाहिए। अगर यह साबित हो गया कि प्रत्याशी के बदले किसी और ने नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं तो वह नामांकन खारिज हो सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रत्याशी का नाम मतदाता सूची में जरूर होना चाहिए। इसके अलावा, नामांकन पत्र में प्रत्याशी ने खुद से जुड़ी कोई जानकारी छिपाई या गलत जानकारी दी तो भी उसका नामांकन रद्द हो सकता है।
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नामांकन पत्र अंतिम तिथि से पहले जमा करना जरूरी
चुनाव लड़ने के लिए किसी भी उम्मीदवार को नामांकन पत्र भरना होता है। उसके प्रस्तावक नामांकन पत्र भरने के बाद रिटर्निंग ऑफिसर या चुनाव की अधिसूचना में निर्दिष्ट सहायक रिटर्निंग ऑफिसर को सौंप सकते हैं। किसी भी उम्मीदवार को अपना नामांकन पत्र निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि से पहले या उससे पहले पहुंचाना आवश्यक है।

रिटर्निंग ऑफिसर भी जांचता है गलती, प्रत्याशी भी जांचे

चुनाव आयोग के मुताबिक, उम्मीदवार को नामांकन पत्र दाखिल करते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए। इसके साथ ही रिटर्निंग अधिकारी को नामांकन प्रस्तुत करते समय उसी समय प्रारंभिक जांच करनी चाहिए। अगर, पहली नजर में उसे कोई गलती दिखाई देती है, तो उसे उम्मीदवार के ध्यान में लाना चाहिए। नामांकन पत्र में लिपिकीय या मुद्रण संबंधी गलतियों को नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उम्मीदवार को नामांकन पत्र दाखिल करते समय सावधानी नहीं बरतनी चाहिए और रिटर्निंग ऑफिसर को ऐसी गलतियों को उम्मीदवार के ध्यान में नहीं लाना चाहिए।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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